“असली ताकत किसके पास? सुप्रीम कोर्ट ने बताया बड़ा सच”

सुप्रीम कोर्ट ने कहा—गवर्नर बिल पर अपनी मर्जी से फैसला ले सकते हैं।

दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट की एक महत्वपूर्ण संविधान पीठ, जिसकी अध्यक्षता भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) कर रहे थे, ने राष्ट्रपति के संदर्भ (Presidential Reference) पर अनुच्छेद 143 के तहत अपना विस्तृत मत जारी किया। यह मत राज्यों के गवर्नर की भूमिका और विधायी प्रक्रिया में उनके अधिकारों को लेकर लंबे समय से चल रही बहस पर एक बड़ा फैसला माना जा रहा है।

एडवोकेट बरुण सिन्हा के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा है कि अनुच्छेद 200 और 201 के तहत गवर्नर के पास “विवेकाधीन शक्ति” (discretionary power) होती है, और किसी बिल पर फैसला लेते समय गवर्नर मंत्रिपरिषद की सलाह से बंधे हुए नहीं हैं। यानी, गवर्नर अपने विवेक से तय कर सकते हैं कि बिल को मंजूरी देनी है, रोकना है या राष्ट्रपति के पास भेजना है।

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि कोर्ट गवर्नर की निर्णय प्रक्रिया में सीधे दखल नहीं दे सकती। हां, अदालतें सीमित दायरे में हस्तक्षेप कर सकती हैं, लेकिन केवल तब जब गवर्नर अपने संवैधानिक दायित्व का पालन नहीं कर रहे हों—जैसे कि बिल पर अत्यधिक देरी करना या कोई कार्रवाई न करना। ऐसे मामलों में ही हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट “मैंडेमस” जारी कर सकते हैं।

एडवोकेट सिन्हा ने बताया कि तमिलनाडु के मामले में कोर्ट द्वारा गवर्नर और राष्ट्रपति को बिल पर मंजूरी देने का निर्देश देना, यह कहते हुए कि अन्यथा बिल “कानून माना जाएगा”, अब सुप्रीम कोर्ट की राय के अनुसार उचित नहीं माना गया है। नई राय में ऐसी न्यायिक हस्तक्षेप की पद्धति को अप्रशंसनीय बताया गया है।

इस मत के बाद राज्यों और केंद्र के बीच शक्ति संतुलन पर बड़ा प्रभाव पड़ सकता है, खासकर उन राज्यों में जहां गवर्नर और राज्य सरकार के बीच टकराव की स्थिति रहती है। विशेषज्ञों के अनुसार, यह निर्णय भविष्य में राज्यपाल की भूमिका और अधिकारों को लेकर चल रही कानूनी बहसों को भी नई दिशा देगा।

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