अरावली पर्वत: सुप्रीम कोर्ट के पुराने आदेश और नए फैसले में क्या है अंतर?

अरावली पर्वत इन दिनों लगातार चर्चा के केंद्र में बना हुआ है। ज़मीन से लेकर इंटरनेट तक “Save Aravalli” नाम से मुहिम चलाई जा रही है। इसी पूरे मसले पर इंडियन एक्सप्रेस के वरिष्ठ पत्रकार जय मजूमदार ने एक विस्तृत और तथ्यात्मक रिपोर्ट प्रकाशित की है। प्रस्तुत खबर पूरी तरह उनकी रिपोर्ट पर आधारित है।

करीब 15 वर्ष पहले सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान सरकार की उस परिभाषा को स्पष्ट रूप से खारिज कर दिया था, जिसमें कहा गया था कि केवल 100 मीटर से अधिक ऊँचाई वाली पहाड़ियाँ ही अरावली पर्वत श्रृंखला का हिस्सा मानी जाएँगी। लेकिन 20 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट ने अपने 2010 के पूर्व आदेशों से बिल्कुल विपरीत फैसला दिया, जिससे कई सवाल खड़े हो गए हैं।

रिपोर्ट के अनुसार, 2010 में सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय वन सर्वेक्षण (FSI) को निर्देश दिया था कि वह पूरे अरावली क्षेत्र का वैज्ञानिक सर्वेक्षण करे और अध्ययन को केवल 100 मीटर ऊँचाई वाली पहाड़ियों तक सीमित न रखे।

कोर्ट ने स्पष्ट कहा था कि पूरे पहाड़ी भू-भाग का मूल्यांकन किया जाना चाहिए, न कि सिर्फ ऊँची चोटियों का।इन निर्देशों के बाद FSI ने एक विस्तृत अध्ययन किया और निष्कर्ष दिया कि जहाँ भूमि की ढलान 3 डिग्री या उससे अधिक है, ऐसे सभी क्षेत्र अरावली पर्वत श्रृंखला का हिस्सा माने जाने चाहिए। इस वैज्ञानिक आधार पर राजस्थान के 15 जिलों में लगभग 40,481 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को अरावली क्षेत्र घोषित किया गया। इसमें पहाड़ियाँ, ढलान, पठारी क्षेत्र और आसपास के इलाके भी शामिल किए गए।

इसके अलावा, पहाड़ी क्षेत्रों के नीचे 100 मीटर तक के भू-भाग को भी संरक्षित क्षेत्र माना गया।सुप्रीम कोर्ट ने 2010 में ही यह टिप्पणी की थी कि राजस्थान में अवैध खनन के कारण अरावली पर्वत श्रृंखला की स्थिति अत्यंत खराब हो चुकी है और कई पहाड़ियाँ पूरी तरह नष्ट हो चुकी हैं। बाद में 2018 में कोर्ट ने यह भी कहा कि अरावली की 128 पहाड़ियों में से 31 पूरी तरह गायब हो चुकी हैं, जो स्थिति की गंभीरता को दर्शाता है।

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